खिल-खिलाती धूप में,
सरसराती छाँव में ,
लहलहाते , कुम्हलाते ,
हवा के झौंकों से ,
जीवन के कुछ पन्ने ,
मैं आज पलट रहा था...
चँद कोरे शब्द ,
अर्थ-हीन बातें ,
खत के रूप में तेरे नाम,
लिखी हुई कभी की मुलाकाते,
नाकाम आरजुओं की राख,
उन पन्नों से धुआँ बनके ,
उड़ी , मुड़ी , छिटक गई..
पकड़ना चाहा तो फिसल गई ,
ज़िंदगी भी तो रेत की तरह है...
मुट्ठी में पकड़ो तो
कहीं न कहीं से
फिसल ही जाती है…... ✍